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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

 संक्षेप में, पूरा शहर एक मंडी है जिसमें चारों तरफ़ से आवाजें उठती हैं। मोल-तोल करती हुई आवाजें, लड़ती-झगड़ती और उलझती हुई आवाजें, बहकाती-फुसलाती आवाजें और छीना-झपटी करती हुई आवाजें। और व्यापारिक आवाजों के इस भयंकर शोर में संवेदनशील लोग, जिन्दगी का एक स्वर खोजने के लिए तरस उठते हैं। वे अध्यापक, जो अकेले होते हैं, जिनके परिवार उनके साथ नहीं होते, कॉलेज टाइम के बाद, एक लमहे का सकून पाने के लिए दिन-भर शाम का इन्तजार करते हैं। 


उस घड़ी का इन्तजार-जब वे शहर की इस मनहूस चहारदीवारी को लाँघकर कॉलेज और रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाएँगे।शाम के साये आकाश से उतरकर धरती की ओर बढ़ते हैं। कॉलेज की पीली इमारत का रंग सुनहरे रंग में झिलमिला उठता है। कॉलेज के पीछे सड़क के साथ-साथ शहर में फैले मैदानों में देसी सदासुहागिन की बाढ़ पर फूलों के छोटे-छोटे चिराग जल उठते हैं। फुटबाल का खेल बन्द हो जाता है। 


शहर के ताँगे खड़-खड़ करते हुए बिजनौर जाने और बिजनौर से आनेवाली शटल गाड़ियों पर मुसाफिरों को लाने-पहुँचाने में व्यस्त हो जाते हैं। रेलवे स्टेशन पर आकर खत्म हो जानेवाली शहर की एकमात्र सड़क दिन भर के वैधव्य के बाद शाम को थोड़ी देर के लिए सुहागिन हो उठती है। और इतनी ही देर में जीवन को इंच-इंच कर जीने के आकांक्षी काफ़ी जीवन-रस प्राप्त कर लेते हैं।सचमुच कॉलेज और उससे सौ-दो सौ कदम के फासले पर खड़ी रेलवे स्टेशन की इमारत शहर की जान है। 


हालांकि सुबह शटल गाडियों का मेल हो जाने के बाद स्टेशन पर शाम तक निपट सन्नाटा छाया रहता है, वैसे ही जैसे छुट्टी के दिन यह कॉलेज यात्रीहीन धर्मशाला-सा जान पड़ता है। मगर कॉलेज के गेट से लगी नींबुओं की बगिया में गूँगे हलवाई की दुकान वातावरण को सोने नहीं देती। गूँगे हलवाई की दुकान की वहाँ बड़ी रौनक है। यह कहना कठिन है कि उससे स्टेशन को अधिक लाभ है या कॉलेज को, मगर उसकी उपयोगिता सब अनुभव करते हैं। कॉलेज के छात्रों से लेकर स्टेशन के खलासियों तक-सबने उसकी दुकान की प्रसिद्धि में उन्मुक्त योग दिया है। 


और अब उसकी दुकान के रसगुल्लों की शोहरत उसकी दुश्चरित्रता की कहानियों से भी ज्यादा फैल गई है।हर नए आदमी की तरह सत्यव्रत पर भी इस शोहरत का प्रभाव पड़ा था और उस शाम वह वहाँ दूध पीने के लिए चला आया था। यद्यपि स्वभावतः वह बाहर जाकर होटलों या ढाबों में खाना नहीं खाता, और जहाँ हाथ से भोजन बनाने की सुविधा नहीं होती वहां वह केवल दूध और केलों पर ही गुजर कर लिया करता है। 


पर राजपुर में, दो बजे इंटरव्यू खत्म होने के बाद, न उसे केले मिले थे और न दूध। यों भी जिन हलवाइयों की दुकान पर वह गया था वहाँ उनकी गन्दगी देखकर उसके मन में भारी अरुचि पैदा हो गई थी और उसने निश्चय किया था कि इन दुकानों पर कुछ खाने की बजाय वह तब तक व्रत रखना पसन्द करेगा जब तक खाने-पीने की कोई समुचित व्यवस्था न हो जाए। पर गूँगे की दुकान पर आकर उसने अपना निश्चय बदल दिया।


भूख जीवन का कितना ही बड़ा सत्य क्यों न हो किन्तु और सत्यों की भांति थोड़े समय के लिए उसे भी दबाया और कुचला जा सकता है। सत्यव्रत भी भूख को मारकर शाम होते ही आर्यसमाज मन्दिर की अपनी कोठरी से निकलकर शहर में घूमने चल दिया था। मुख्य सड़क पर आते ही हलवाइयों की दुकानों से उठती हुई गन्ध रह-रहकर उसके निश्चय के एकान्त में महकने लगी, पर वह विचलित नहीं हुआ। 


तभी संयोगवश असरार से उसकी भेंट हो गई जिसने बड़े जोरदार शब्दों में घूमने के लिए हिन्दू कॉलेज और खाने-पीने के लिए गूँगे की दुकान पर जाने की सिफारिश की और दुकान पर आकर सत्यव्रत को प्रसन्नता ही हुई।मँजे हुए, साफ़-सुथरे पीतल के गिलास से दूध का एक घूँट भरते ही सत्यव्रत की आत्मा तृप्त होती चली गई। वास्तव में इतने अच्छे दूध की उसने आशा नहीं की थी। गूँगे की ईमानदारी पर उसे आन्तरिक खुशी हुई और इसीलिए पैसे देते वक़्त उसने दूध के गिलास की ओर इशारा करते हुए निर्विकार भाव से उसकी शुद्धता की तारीफ की। 



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